इंसान दूसरों के सुख से दुखी क्यों है?
ईर्ष्या और द्वेष मनुष्य के दो प्रमुख अवगुण हैं जो उसे दुखी करने के लिए पर्याप्त हैं. लगातार लम्बे समय तक ये मनोभाव मन में रहने पर एक मानसिक विकार का रूप धारण कर लेते हैं. सवाल और समस्या यह है कि मनुष्य दूसरों के सुख से दुखी क्यों होता है. ज़िंदगी में दो प्रकार के दुखी लोग हो सकते हैं: एक वो जो अपने दुःख के कारण दुखी हैं और दुसरे वो जो दूसरों के सुख के कारण दुखी हैं. पहले वाले लोग सहानुभूति के पात्र हो सकते हैं और दूसरे वाले लोग भी सहानुभूति के पात्र मगर उनके सन्दर्भ बदल जायेंगे.
अगर हम किसी को सुख नहीं दे सकते तो उसे दुःख देने का भी अधिकार नहीं है.
दूसरों की खुशहाली को देख कर तकलीफ क्यों
किसी इंसान को अपने दुःख के कारण दुःख हो तो बात समझ में आती है और अगर उसे दूसरों के सुख को देख कर दुःख होता हो तो एक बात मन में आती है की वह इंसान कहीं ईर्ष्या और द्वेष की भावनाओं का शिकार तो नहीं है. दूसरे हम से ज्यादा सुखी हैं, दूसरों की बढ़ती तरक्की हमें दिखाई दे रही है; अच्छी बात है. मगर हमें तकलीफ़ क्यों हो रही है ? अगर हमें दूसरों की खुशहाली को देख कर ज्यादा तकलीफ हो रही है तो इसका अर्थ कुछ यह होता है की हमारी सोच में कहीं कुछ गड़बड़ी है और यहीं से शुरुआत होती है अपने आप में सुधार करने की.
जो दोगे वही मिलेगा चाहे सुख हो या दुःख
कहते हैं कि सुख बांटने से बढ़ता है. दूसरों को सुखी देखने की कामना भी शायद अपना सुख बढ़ाने की एक तरकीब है. दूसरों की खुशहाली की कामना हमें दूसरों के सुख से दुखी होने से रोकेगी. हम दूसरों को दुःख देना चाहेंगे तो हमारे मन में वही विचार रहेंगे.
ज़िंदगी में कई बार कई सवालों के उत्तर नहीं मिलते और कई बार कई सवालों के उत्तर कुछ सवालों से मिल जाते हैं. कभी-कभी जब इंसान ज्यादा दुखी हो तो उसे खुद से कई सवाल पूछना चाहिए.
हम किससे दुखी है? दूसरों के सुख से या अपने दुःख से?
दूसरों को सुखी देखकर हमें दुःख होता है या तकलीफ होती है तो कहीं हम अपनी सुख शांति तो नष्ट नहीं कर रहे?
किसी को सुखी देखकर हमको दुःख हुआ तो हम दुखी हो गए, कही हमने दुःख को खुद आमंत्रित तो नहीं किया?
कहीं हमने दुखी होने का स्वभाव तो नहीं बना लिया?
दूसरा हमसे ज्यादा सुखी है तो हमें क्या परेशानी है? हमें दूसरों के प्रति ईर्ष्या भाव रखने का क्या अधिकार है?
अगर हम दूसरों को सुखी नहीं देख सकते तो हमें कौन सुखी देखना चाहेगा?
क्या दुखियों के दुःख दूर करना अच्छा काम नहीं है?
क्या हमें खुद के सुख और मानसिक प्रसन्नता को नष्ट करने का अधिकार है?
दूसरों के प्रति दुर्भावना रखकर कहीं हम अपने खुशहाल जीवन को कष्ट में तो नहीं बदलना चाहते?
शायद खुद से ये सवाल पूछने के बाद हमें अपने ‘दुःख’ से कुछ राहत मिले! अपने लिए जिए तो क्या जिए. ज़िंदगी वही जो दूसरों के काम आये. अगर हम दूसरों की ख़ुशी में खुश होते हैं तो शायद हमें अपनी ख़ुशी के लिए कामना करने वाले भी मिल जायें.
किसी ने कहा भी है: सुख चाहो तो सुख दो.
चुनाव हमारा खुद का है हम क्या चाहते हैं सुख या दुःख.
इस हिंदी आलेख में व्यक्त विचार मेरे अपने हैं. यह आलेख आपको कैसा लगा, आपके विचार एवं सुझावों का स्वागत है. Article by: अनिल साहू
अनिल साहू के ब्लॉग: एजुकेशन टुडे and Hindisuccess.com
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